Saturday, March 3, 2007

नफरत...

खाक की इस बस्ती में, बस मौत की आवाज़ सुर्ख है।
जलते हुए इन घरों की हर ईंठ में, सपनों की चिता मौजूद है।

कदमों की आहट से भी डर लगता है।
हवा पास से गुज़र जाए तो सांसे थम जाती हैं।

खौफ की वो हर एक चीख, उजाले को निचोड रही है।
नफरत की हर पुकार, सरसराती, इस बस्ती की गलियों पर रेंग रही है।

अब यहां राज है बस बरबादी की बू का।
आँसुओं की बारिश इस आग में भाप हो चली।

अपने आप को इनसान कहने वाले मुजरिम....
तू जा!
अब यहां तेरी हैवानियत को अंजाम देने कि लिए खाक भी कम है।

2 comments:

newsjunkie said...

he he he!!! Kya baat hai!!! Wah wah wah

Unknown said...
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